कुंभकर्ण को पाप-पुण्य और धर्म-कर्म से कोई लेना-देना नहीं था। वह तो हर 6 माह में एक बार जागता था। उसका पूरा एक दिन भोजन करने में और सभी का कुशल-मंगल जानने में व्यतीत हो जाता था। रावण के अधार्मिक कार्यों में उसका कोई सहयोग नहीं होता था। कुंभकर्ण राक्षस जरूर था, लेकिन अधर्म से दूर ही रहता था। इसी वजह से स्वयं देवर्षि नारद ने कुंभकर्ण को तत्वज्ञान का उपदेश दिया था।
रावण द्वारा सीता हरण के बाद श्रीराम वानर सहित लंका पहुंच गए थे। श्रीराम और रावण, दोनों की सेनाओं के बीच घमासान युद्ध होने लगा, उस समय कुंभकर्ण सो रहा था। जब रावण के कई महारथी मारे जा चुके थे, तब कुंभकर्ण को जगाने का आदेश दिया गया। कई प्रकार के उपायों के बाद जब कुंभकर्ण जागा और उसे मालूम हुआ कि रावण ने सीता का हरण किया है तो उसे बहुत दुख हुआ था।
कुंभकर्ण दुखी होकर रावण से बोला कि अरे मूर्ख। तूने जगत जननी का हरण किया है और अब तू अपना कल्याण चाहता है तो श्रीराम से क्षमायाचना कर लें और सीता को सकुशल लौटा दे। ताकि राक्षस कुल का नाश होने से बच जाए। इतना समझाने के बाद भी रावण नहीं माना।
जब रावण युद्ध टालने की बातें नहीं माना तो कुंभकर्ण बड़े भाई का मान रखते हुए युद्ध के लिए तैयार हो गया। कुंभकर्ण जानता था कि श्रीराम साक्षात् भगवान विष्णु के अवतार हैं और उन्हें युद्ध में पराजित कर पाना असंभव है। इसके बाद भी रावण का मान रखते हुए, वह श्रीराम से युद्ध करने गया। श्रीराम चरित मानस के अनुसार कुंभकर्ण श्रीराम के द्वारा मुक्ति पाने के भाव मन में रखकर युद्ध करने गया था। उसके मन में श्रीराम के प्रति भक्ति थी। भगवान के बाण लगते ही कुंभकर्ण ने देह त्याग दी और उसका जीवन सफल हो गया।
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